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हिंदी ब्लॉगिंग ‘हिंग्लिश’ स्वरूप को अपना रही है। क्या यह हिंदी के वास्तविक रंग-ढंग को बिगाड़ेगा या इससे हिंदी को व्यापक स्वीकार्यता मिलेगी?- contest

कारवां
कारवां
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hinglish

“भाषा एक नदी की तरह होती है, जो अपने वेग को समय और स्थान के साथ ढालते हुए आगे बढती है | जिस प्रकार नदियाँ अपने आस पास की सभी चीजों को समेटते हुए , मुहाते हुए और अनेक संस्कृतियों और सभ्यताओं को अपने आसपास विकसित करते हुए आगे बढती है | उसी तरह भाषा भी अपने साथ चाल-चलन, आचार-व्यवहार, बोलियाँ, कविता, कहानी साहित्य आदि संस्कृतियों और इन्हीं के अनुरूप कई सभ्यताओं को विकसित करती हुई निरंतर बहती है |”
प्रस्तुत गद्यांश मैंने हिंदी दिवस के अवसर पर लिखा था, लेकिन आज जब इस विषय पर लिखने बैठा तो इसकी सार्थकता यहाँ समझ में आयी | जैसा कि शीर्षक में वर्णित है कि- आधुनिक दौर में हिंदी ब्लॉगिंग ‘हिंग्लिश’ स्वरूप को अपना रही है। हाँ यह पूर्णत: सत्य है, लेकिन मैं इसके बाद वाले अंश से थोड़ा सा असहमत हूँ- कि यह हिंदी के वास्तविक रंग-ढंग को बिगाड़ेगा क्योंकि मैं पूछना चाहता हूँ कि- हिंदी का वास्तविक रंग-ढंग है क्या ? अगर हम हिंदी के तत्सम रूप की बात करें तो यह संस्कृत के समीप चली जाएगी और यदि इसके तद्भव रूप की बात करें तो यह जनमानस के अनुसार कई हिस्सों में विभाजित हो जाएगी और जैसा कि मैं प्रारंभ में लिख चुका हूँ कि- भाषा एक नदी की तरह है और आप नदी को बांध कर नहीं रख सकते | यदि ऐसा किया भी जाता है तो जिस तरह नदी पर बांध बनाने से उसका जल ठहरे रहने के कारण ख़राब हो जाता है , जिस तरह जल तालाब में जल कुछ समय बाद सूख जाता है , उसी प्रकार भाषा में सीमायें डालने से वह भी विलुप्तता के कगार पर आ जाती है | उसका साहित्य उसे जीवित तो रखता है पर वह जनमानस के अनुरूप न होने के कारण पुस्तकालयों के किसी कोने में ही रहती है, जैसा संस्कृत के साथ हुआ | किसी काल में संस्कृत जनमानस की , आम बोलचाल की भाषा थी पर रूप बंधन के कारण जैसाकि सभी जानते है, यह आज केवल वैदिक कर्मकांडों की भाषा ही रह गयी है | इसके साथ ही अगर हम हिंदी इतिहास का अध्ययन करें पाएंगे कि- हिंदी का प्रादुर्भाव ही सामाजिक रूप से स्वीकार्य भाषा, साधारण बोलचाल की भाषा के रूप में हुआ था | तुलसीदास जी तो इस बात पर अपने गुरु संदीपन जी से भी तर्क कर गये थे | आचार्य संदीपन जी का कहना था कि- श्रीरामचरितमानस की रचना संस्कृत में करो | लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत गोस्वामी जी ने हिंदी में मानस ग्रन्थ की रचना इसलिए की ताकि इसकी शिक्षाओं को जन-जन के व्यवहार में लाया जा सके | इसके साथ ही तुलसीदास जी के काल में ही उर्दू भी आम भाषाओँ में आ चुकी थी, तो उन्होंने भी अपनी रचनाओं में उर्दू के कुछ एक शब्दों के प्रयोग से परहेज़ नहीं किया |उदारहरण के लिए, जब एक मुग़ल शासक ने उन्हें अपने दरबारी कवि बनने का न्यौता दिया तो बाबा तुलसी ने सहर्ष कहा –
“हम चाकर रघुवीर के, पटो लिखो दरबार |
तुलसी अब क्या होएंगे, नर के ‘मनसबदार’ |”
यहाँ मनसबदार जैसे शब्द उर्दू से आये पर बोलचाल में थे | अब अगर मुंशी प्रेमचंद को ही ले तो उन्होंने तो हिंदी में हर भाषा के शब्द का प्रयोग किया |उनकी रचनाओं की सार्वभौमिकता का शायद यह भी एक कारण है | उसके बाद अगर आज की भाषा को लें तो हम भी प्रतिदिन कितने अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हिंदी की तरह ही करते हैं और जहाँ तक बात है ब्लॉगिंग की तो हमें समझना चाहिए की आजकल हम कंप्यूटर (संगणक) युग में जी रहे हैं, जिसकी आधारभूत भाषा अंग्रेजी है | विज्ञान के इस उपहार ने हमें काफी आगे पहुँचाया है तथा यह जनसंपर्क का साधन बना है | इसलिए जब इस पर हम लेखन करते हैं तो जिन्हें सरल लगता है वो अंग्रेजी अक्षरों में हिंदी भाव प्रकट कर देते हैं या हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर देते हैं | ऐसा केवल भावों के आदान प्रदान की सरलता के लिए ही है |
अब हमें देखना चाहिए यहाँ पर हिंदी फिर से स्वयं के रूप में नवीनता ला रही है , वह शब्दों से धनी हो रही है पर उसका व्याकरण तो पूर्ववत ही है | तो कैसे कह सकते हैं यह बिगड़ रही है, बल्कि यह तो समय के साथ और व्यापक हो रही है इसलिए इसका यह स्वरुप स्वीकारने योग्य है और इससे हिंदी को व्यापकता ही मिलेगी |

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